पूरी रात करवटें बदलते बीत गई थीं। जिस काम के लिए गांव आया था, वह पूरा नहीं हो पाया था। भइया से पैसे मांगने की कोशिश कई बार की, लेकिन हर बार भाभी ने बात को बड़ी सफाई से टाल दिया। मन बार-बार यही सोच रहा था कि क्या भइया जान-बूझकर भाभी को आगे कर देते हैं? या भाभी ही उनकी बातों को अपना बना कर मुझसे कहती हैं?
“तुमसे क्या छुपा है, कैसे घर चलाते हैं, हम ही जानते हैं,” भाभी का यह जवाब बार-बार कानों में गूंजता था। लेकिन यह आवाज़, शब्द भाभी के नहीं, भइया के ही लगते थे। घर की हालत देखकर मेरा दिल भर आता था—बच्चों के महंगे कपड़े और खिलौने, जबकि मेरे बेटे के पास वही पुराने, रंग उड़े कपड़े। मन में एक खिन्नता थी, और पत्नी ऊषा के ताने भी कानों में गूंज रहे थे, “आपके हिस्से की खेती का हिसाब भी नहीं मांगते!”
इसी बेचैनी में सुबह हो गई। मां की आवाज़ खिड़की से आई, “जाग गया? आकर मेरे पेड़-पौधे देख।” चाहकर भी मना नहीं कर पाया और बाहर निकला। गुस्से में मां पर बरस पड़ा, “घर में इतने लोग हैं, लेकिन पौधों में पानी आप ही डालती हैं! पाइप क्यों रखी है, जब बाल्टी से ही पानी डालना है?”
बिना किसी प्रतिक्रिया के, मां ने अचानक मेरी जैकेट की जेब में रुपयों का बंडल डाल दिया। “तुझे बिट्टू के एडमिशन के लिए चाहिए होंगे ना? चुपचाप अटैची में रख दे।” मेरा मन विचलित था—पहला सवाल यह था कि मां को कैसे पता चला मुझे पैसे चाहिए, और दूसरा कि क्या ये पैसे भइया से लिए गए हैं?
मां ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “नहीं रे, दो पुरानी अंगूठियां थीं, बेच दीं। ये देखो, सबसे अच्छे फूल इसी पौधे में आते हैं, जो तुम बीकानेर से लाए थे।” मां के इस अचानक विषय परिवर्तन से मन थोड़ा हल्का हुआ, लेकिन तभी भाभी पास आती दिखीं।
“क्या हुआ? इतनी सुबह उठ गए?” भाभी की नजरें हमारी बातचीत का सिरा पकड़ने की कोशिश कर रही थीं। मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “मां से पूछ रहा था कि पाइप होते हुए भी मग से पानी क्यों डालती हैं।” जेब में पड़े नोटों को छूते हुए आंखें भीग गईं।
मां ने धीरे से अपनी आंखें पोंछी और कहा, “वह पौधा सबसे दूर है, वहां तक पाइप नहीं पहुंचती... इसलिए।”
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